मैं और मेरी जि़ंदगी अक्सर ये बातें करते हैं

मैं और मेरी जि़ंदगी अक्सर ये बातें करते हैं



जी हां, मैं और मेरी जि़ंदगी अक्सर ये बातें करते हैं। जब भी फुर्सत के दो लम्हे होते हैं, वो चली आती है, बात करने के लिए। फिर अक्सर वही बातें होती हैं, जैसे- तुम न होती तो कैसा होता। तुम होती तो कैसा होता। तुम ये कहती, तुम वो कहती। तुम इस बात पर हैरां होती, तुम उस बात पर हंसती। वगैरह-वगैरह। कल मेरा दिमाग खराब था, और वो चली आई, मुझसे बात करने के लिए। बोली- तुम हो तो कैसा है! तुम न होते तो कैसा होता? 
- तूने मुझे क्यों बेवकूफ बना रखा है? आखिर चाहती क्या है मुझसे? तुम न होती तो मैं सुखी होता, और तुम हो, तो कुछ भी तो नहीं है। पचास साल हो गए मेरा ‘गांठते’ हुए। 
वह सकपका गई, कुछ नहीं बोली। मेरी ओर टकटकी लगाए देखती रही। जैसे सोच रही हो कि आज रॉंग नंबर डायल कैसे हो गया? वह बोली- कुछ ही लम्हों के लिए तो आती हूं बात करने के लिए। वरना सारा दिन-रात अकेला ही तो फडफ़ड़ाता रहता है। कौन है तेरा इस दुनिया में जो साये की तरह साथ रहे। एक मैं ही तो हूं। तेरे सारे शारीरिक और मानसिक सुख-दुखों की साझीदार, मैं ही तो हूं। तूं अंदर क्या है, बाहर क्या है, यह जानने वाली एक मैं ही तो हूं। तूं कहां जाता है, क्या करता है, यह जानने वाली एक मैं ही तो हूं। मेरे से झगड़ा करके तुझे क्या हासिल होगा? परेशान मत हो। अच्छा बोल मैं ना होती तो कैसा होता..। 
मैंने कहा सारी उम्र तूने मुझे घुमाए रखा। कभी स्कूल जा तो कभी कालेज चला जा। पढने लिखने के बाद भी बेरोजगार। तूने कहा, शादी कर, बच्चे पाल। कभी ये कर, कभी वो कर। कभी झूठ बोल, कभी सच बोल। कभी इससे पंगा ले, कभी उससे पंगा ले। परिवार के लालन पालन के लिए कभी ये खरीद कर ला तो कभी वो काम कर। कभी उसकी दिहाड़ी कर तो कभी उसकी चाकरी कर। कभी एक नंबर का काम कर, तो कभी दो नंबर का काम कर। तूने मुझसे क्या-क्या नहीं कराया। पहले मां बाप से डरता रहा, अब बच्चों से भय खा रहा हूं। अब और क्या बाकी है, जरा ये भी बता दे। 
और सुन, अब जब शरीर में ऊंच नीच होने लगी है तो कह रही है उस सत्संग में चला जा, या उस पंथ पर चल। कभी कह रही राम रहीम की सुन ले तो कभी कह रही आसाराम की रामायण ठीक रहेगी। कभी कह रही माता का मंदिर उचित रहेगा तो कभी मस्जिद में चद्ïदर चढ़ाने के लिए बोल रही है। कभी कह रही है गीता का अध्ययन किया कर, तो कभी कह रही हनुमान चालिसा का पाठ कर। कभी कह रही सुबह-शाम भजन किया कर तो कभी कह रही बाबा रामदेव का अष्टग बहुत अच्छा रहेगा। 
अरी ‘श्री देवी’ तूं मुझसे चाहती क्या है? मैं तो पहले ही सेहत के प्रबंधन में उलझा हूं। कभी सोचता हूं  की यह दाल ठीक रहेगी, कभी उड़द-चने की दाल खरीदने जाता हूं। कभी सोचता हूं सूखी रोटी ठीक रहेगी, तो कभी घी-शक्कर जीम लेता हूं। कभी अंग्रेजी के डाक्टर से उपचार कराता हूं तो कभी देसी डाक्टर की सलाह लेने चला जाता हूं। देश का हर तीसरा आदमी डाक्टर है, जो सलाह उड़ेलता रहता है। अब तूं बता, मुझसे चाहती क्या है?
वह हंसकर सहज़ता से बोली- मैं यही तो चाहती हूं, जो तूं कर रहा है। यही है जि़दगी। इसे हंसकर जी ले या परेशान होकर जी ले।  जैसे भी जी रहा है उसमें आनंद का अनुभव कर। गर्मी हो या सर्दी, उसका मजा ले। जैसा तेरा नज़रिया होगा वैसा ही तेरा जीवन होगा। बावले। 



-मनोज प्रभाकर 
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